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मंगलवार, 11 अगस्त 2015

माँ...तुम्हारे जाने के बाद
















साहित्य में नव-चेतना की पैरवी करती पत्रिका 'गाथांतर' मे अपनी कविता का प्रकाशित होना, 
गौरवान्वित महसूस होने वाला पल है।
माँ की याद मे लिखी गयी कविता, उन्ही की स्मृतियों को समर्पित....

माँ, तुम्हारे जाने के बाद
रोज़ निहारती हूँ अपना चेहरा
टटोलती हूँ 
अपनी हंसी में तुम्हारा अक्स
लेकिन इतने दिन हुए
कभी आईने को
मुस्कुराते नहीं देखा


बिवाई मिटाने का मलहम
जोड़ों की मालिश का तेल
तुम्हारे बिस्तर के सिरहाने
फुर्सत से आराम फ़रमा रहे हैं
इस जाड़ेजोड़ों के दर्द से 
जो तुम्हारा वास्ता नही पड़ा

तुम्हारी ग्रे नीली फीके रंग की
सभी साड़ियों को
तह करते समय जाना
तुमने उसमे समेट रखे थे 
कितनी ही नरम मीठी गंध वाली
मुस्कान की रोटियाँ
और हमारी रंग-बिरंगी आवाज़ों वाली
लाड भरी किलकारियाँ


पिछली सर्दी में बनवाया 
तुम्हारी धुंधली आँखों का चश्मा
इस ठंडी में अंधा हो गया
मेरी कविताओं के पन्नों पर बैठे बैठे
सोचता है,
आज कल किसी का भरोसा नहीं
ज़िन्दगी कितनी छोटी हो गयी है!!


गुरुवार, 30 जुलाई 2015

|| इंसाफ की बात ||














जब हजारों की संख्या में
न्याय को तरसते लोग
बरसों से अपनों की ठंडी लाश के साथ सोते हुए
आज गर्माहट महसूस करने लगे हैं

आज जब उनकी बरसों से जागती हुई
पथरा गयी आँखों को
चैन की नींद सोने का मौका मिलेगा

अपने मारे गए बच्चों के बारे मे सोचते हुए
जिन माँ-बाप के गले से
एक निवाला तक नीचे नहीं उतर रहा था
अचानक से उनके पेट की क्षुधा दुगुनी हो जाएगी

जिन कानों ने कितना समय गुज़रे
गोलियों, बम-धमाकों और मौत के चीख-पुकार के अलावा
कोई भी दुख का गीत नहीं सुना

जो लोग हंसने और रोने,
स्तब्ध रह जाने या खुल के मुस्कुराने के जद्दोजहद मे
आस का दामन पकड़े कई-कई मौत रोज़ मर रहे हैं
जिनका बस एक खबर मिलने भर से
सारा ताप, संताप, क्रोध, आघात का कौतूहल
पल भर मे शांत हो जाएगा  

क्या उन आत्माओं की शांति से बढ़ के
उस इंसान की, इस दुनिया मे मौजूदगी ज़रूरी है
जिसकी रूह, इंसानियत का गला घोंटते समय
बिलकुल भी नहीं कांपी

अगर यही है इंसानियत
तो ‘थू’ है ऐसी इंसानियत पर और उन दलीलों पर
जिनके आधार पर
कलम यह कविता लिखवा गयी !!

(रेणु मिश्रा )


बुधवार, 3 जून 2015

|| अरुणा शानबॉग की याद में...||

















दोस्तों, जानी-मानी समसामयिक पत्रिका "आउटलुक हिन्दी" के जून 2015 के अंक में मेरी कविता "अरुणा शानबॉग की याद में..." प्रकाशित हुई है। इस कविता को मैं अरुणा के जैसी जघन्य त्रासदी झेल चुकी दुनिया की हर स्त्री को समर्पित करती हूँ। उनका असहनीय दर्द, मेरा और हर उस इंसान का दर्द है जो सही मायनों मे दर्द, पीड़ा, वेदना के मर्म को समझता है। 
"अरुणा शानबॉग को विनम्र श्रद्धांजलि"!!

कविता 


अँधेरा
घना, काला, स्याह अँधेरा
जो कभी वीरान नही होता
ना होता है सुनसान

वहां चीखती है अनेक
कलपती साँसों की रुदालियाँ
जो चित्कारती पुकारती
छुप जाना चाहती हैं
उन दरिंदों की स्याह परछाइयों से
जिन्होंने बयालीस साल पहले
उसकी आत्मा का खून कर
उसे उजालों से कर दिया था बेदखल
जो उसे जंजीरों से जकड़, 
फेंक आये थे 
पीड़ा से भरे अंतहीन काली खोह में

उसकी आत्मा जूझती रही 
पल-पल उस काले अतीत से
जिसने उसके उजले भविष्य का 
कर दिया था बलात्कार

मन के अँधेरे स्लेट पर से 
वो हर संभव, 
हर तरीके से मिटाती रही
'
बेचारी अरुणा' होने का दाग़

और फिर उस दिन
तिल-तिल सुलगते देह के अँगारे में
धड़कनों के बिगुल ने ऐसा साँस फूंका
कि वो, एक तिनका उजाले का
अपनी अंधी आँखों से गटक
अँधेरे के जकड़बंदियों से 
हमेशा के लिए आज़ाद हो गयी


अब
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर!
कभी भूल कर भी तुम 
"
अरुणा शानबॉग" ना बनाना!! 

गुरुवार, 21 मई 2015

जन्मदिन मुबारक हो...लम्हों के मुसाफिर...

दोस्तों, आज आप सब को ये बताते हुए मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही है कि आज मेरे ब्लॉग "लम्हों के मुसाफिर..." को पूरे पांच साल हो गए। यानि आज आपके अपने ब्लॉग का 5वां जन्मदिन है... हुररै...
इन पांच सालों में ये मेरा हमसफ़र कभी कम चला तो कभी ज़्यादा, मगर रुका कभी नहीं। हमेशा मुझे आगे बढ़ते रहने को उत्साहित करता रहता है। एक बार जो आज से पांच साल पहले इसके प्यार में पड़ी कि अब तक निकल ही नहीं पायी। शायद कभी निकलना चाहा ही नहीं और ना ही कभी निकलना चाहूंगी। अब तो, इसके साथ यूँही लम्हा-लम्हा गुज़रते हुए साँसों की डोरी के उस पार जाना है।
इन पांच सालों में मेरे ब्लॉग पर आने वाले देखे-अनदेखे सभी दोस्तों का दिल से शुक्रिया जिन्होंने अपने प्राइसलैस कमेंट्स से ना केवल मुझमें और लिखने का उत्साह भरा बल्कि मेरे इस सफ़र को भी एक अनोखे अपनेपन से गुलज़ार रखा।
तो चलिए, इस खूबसूरत लम्हों के साझेदार बनते हुए कहते हैं

" जन्मदिन मुबारक हो...लम्हों के मुसाफिर..."

तुम हमेशा यूँही कुछ कहते चलो, कुछ सुनते चलो...ये ज़िन्दगी लम्हों का सफ़र है, गुज़रते चलो...

||विस्थापन||











अपनी ही धरती पर 

विस्थापन का दंश सहता
काले कीचट कपड़ों में लिपटा
कोयला निकालता आदमी
खोजता है 
अमावस की रात सी अंधेरी खदान में 
पूर्णिमा के चाँद सा गोल
रोटी का टुकड़ा


कमज़ोर हाथों से करता है

बार-बार हथौड़े की चोट  
धरती के सीने पर,
क्योंकि उसे याद आता है 
भूख से बिलबिलाते अपने बच्चों का चेहरा
जिनके पेट में दहक रही है
सदियों से जलती कोयले की अंगीठी
लेकिन बस, नहीं है तो
अदहन देने के लिए मुठ्ठी भर अनाज


दिन भर की मेहनत के बाद

मिलती है उसे 
पलकों पर झर-झर के उतरती
कोयले की धुंध वाली सफ़ेद साँझ
और, उसके हाथों पर रख दी जाती है 
लाचार सी आधी-पौनी दिहाड़ी
जो अपने मालिक से 
जिरह करने में भी सहमती है


काले कोयले के काले धन से 

उजले हो जाते हैं सफ़ेदपोश
और छोड़ जाते हैं 
कोयले की कालिख 
उसके हाथों की लक़ीरों में 
धरती की गोद में जाकर भी
भूखा ही रहा आदमी!!


गुरुवार, 14 मई 2015

|| नितांत अकेली ||

दोस्तों, मुझे यह बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि...अभी हाल ही में जानी मानी पत्रिका "कादम्बिनी" के मई-2015 अंक में मेरी कविता " नितांत अकेली" का प्रकाशन हुआ। पढ़ कर अपनी राय अवश्य बताएं...

















|| नितान्त अकेली ||

पहले जब तुझे जानती नहीं थी
सुनती थी तेरी हर एक बात
तेरे इशारों पर चला करती थी
जो कहना मानती थी तेरा
तो खुश रहने जैसा लगता था
ओ मेरी रूह,
कितना दबाव था तेरा मुझ पर

लेकिन एक दिन
मैं हो गयी विद्रोही
लोग मनमन्नी कहने लगे
तुझे जानने की कोशिश में
पहचान गयी खुद को
आदेशों के सांकलों में बाँध के
कोशिश भी की तूने रखने की
मगर मैंने एक ना सुनी
सारी रिवाज़ें रवायतें तोड़ भाग निकली
दुखता था दिल
कांपता था शरीर
दफ़्न होती जाती थी धड़कनें
मगर मैं भागती रही
नापती रही साहस के पहाड़ों को
तैरती रही दरिया के रौ के विरुद्ध
और छिपाती रही खुद को
बस अपने लिए खोज के निकाले गए
समय के घने वीरान जंगल में

मैं जान रही थी कि
तू खोज रही होगी मुझको
लेकिन मैं जानती हूँ ना
कि मैं कहाँ पाना चाहती थी तुझको
अब ना तेरे सुख का कोई गीत
या विचारों की प्रतिध्वनि
मुझ तक पहुँचती है
और ना तेरे विश्वास की कोई कड़ी
या नियम की कोई ज़ंजीर
मुझे गहरे तक जकड़ती है
तुझे खुश रखने की आकांक्षा भी
अब कहाँ बची है मुझमें?
अब मैं भगोड़ेपन के सुकून में जी रही हूँ
अलमस्त, बेलाग, नितांत अकेली!!

(रेणु मिश्रा)

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

|| भूख का कटोरा ||















आज कल चिता की आंच पर
पकते हैं कितने भूखे किसान
जो बोते हैं तड़पती भूख के बीज को
धरती के उमसते आंवें में
चढ़ाते हैं धधकते सूरज को जल
करते हैं इंद्र से प्रार्थना
कि बारिश की नर्म बूंदों से
खिल जाये सुनहरी गेंहू की बालियां

मगर उन्हें नहीं पता
कैसे मनाये समय के कुचक्र को
जो भरने नही देता
उनके अनाजों की कोठली
उड़ा देता है सर से
गिरवी पड़ा आस का छत्तर
छोड़ जाता है नादान भूखे हाथों में
कुलबुलाता खाली दूध का कटोरा
और चूल्हे की सोई आंच के पास
औंधी पड़ी हुई देकची

अब तो परमात्मा भी नहीं आते
देकची में पड़े एक दाने से
भूखों का पेट भरने!

पर धरती का पूत भूखा रहके भी
नहीं देख पता अपने आस पास
आँखों में लिलोरती भूख
तंग आकर समय के खेले से
खुद ही लगा लेता है फाँसी
या चढ़ा लेता है खुद को
चिता के धधकते चूल्हे पर

भूख मिटाने की चाह में
मिटा लेता है खुद को
पर चिता की भूख है कि
कभी मिटती ही नहीं!!

अब भूख के कटोरे में दर्द भी है! 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

तुम्हारे कमरे का मेरा सामान

आज तुम्हारे कमरे मे गयी थी
चुपके से, ठहरे पानी सी
और हवा की तरह ले आई
अपने संग हर वो बात
जो ज़िंदगी के लिए ज़रूरी थी

हाँ
ले आई बिस्तर के सिरहाने से
कॉफी के, दो खाली मग
कड़वाहटों को तलहटी मे छोड़
जिनके संग गुज़ारा था
प्यार भरी चुसकियों का मीठा वक़्त

अरे!! वक़्त से याद आया
ले आई फ़ोटोफ्रेम से
मुस्की वाला, वक़्त का क़तरा
जो लम्हों की सूई से ठोकर खा
वहीं था पड़ा, पतझड़ सा बिखरा
यादों के चिलमन से जो
धूप थी छन के आई
तो उससे लग रहा था
वो कितना उजला निखरा

लो!! उजले से याद आया
ले आई उजले से दिन और
चमकीली रातों वाला कलेण्डर
जिनमे बातें थी उन मौसमों की
जहाँ दिन खिलते थे चंपई से
और रातें महकती थी जैसे लैवेंडर।

अब!! ख़ुशबू की बात कैसे भूलूँ
ले आई तुम्हारी अलमारी से
झाँकता हुआ अपना हरा दुपट्टा
जो तुम्हारी ख़ुशबू से था तरा
और तुम्हारे प्यार को सीने से लगाए
बरसों से था वहीं पड़ा

गुस्ताख़ी माफ़ हो, तुम्हें बताया नहीं
कि मैं कब आई मैं कब गयी
पर शायद तुमने मेरे लिए ही इन्हे
इतने दिनों से सहेज रखा था
ले आई
तुम्हारे कमरे का वो मेरा सामान
जो मेरी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी था...!

(प्रस्तुत कविता "धूप के रंग" काव्य संग्रह में जुलाई'14 को प्रकाशित)

रविवार, 8 मार्च 2015

आज तक न्यूज़ चैनल पर मेरी कविता

दोस्तों अभी खुशखबरी मिली कि मेरी नयी कविता "Happy Women's Day" को आज तक की वेबसाइट पर साझा किया गया है...पढ़ें और बताएं कैसी लगी 😊
http://m.aajtak.in/story.jsp?sid=802391

*******हैप्पी वीमेन'स् डे*******










हर दिन सुबह आँख खोलते ही
निहारती हैं हम हथेलियों को
देखती हैं अपने किस्मत की रेखा
जाने रात भर में 
क्या बदल गया होगा
बदलता कुछ नहीं
पैरों में वही चकर घिन्नी लगी है
जो पैदा होते वक़्त 
धरती माँ से खोइन्छे में मिली थी

रोबोट की तरह 
सेट हो चुका है अपना माइंड सेट
अब उसी कण्ट्रोल बटन से चलता है
अपने जीवन का कारोबार
इसलिए कभी कभी याद भी नहीं रहता
अगले दिन इतवार है या सोमवार
तो भला कैसे याद रहेगा
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का त्योहार
जिसमे हमें याद दिलाया जाता है
कि हमें भी हैप्पी होना है
साल के तीन सौ पैंसठ दिनो में से
अब भला कैसे याद रहे 
अदना सा 8 मार्च का एक दिन 
जबकि इस दिन अपने परिवार में से
किसी का जन्मदिन भी तो नहीं पड़ता
और ना ही होता है
दीवाली, ईद, गुरु-पूरब, ईस्टर
या कोई राष्ट्रीय त्योहार

आज भी 
स्कूल की किताबों में नहीं होता
वुमन के हैप्पी होने का कोई चैप्टर
वो मर्दानी झाँसी की रानी हो सकती है, 
या हो सकती है 
ममता की नदी सी मदर टेरेसा या
करुणा की लौ लिए नाईट-एंगल
बाजू का दम दिखाती मेरीकॉम या
उड़नपरी पी टी उषा हो सकती है
वो हो सकती है 
पुचकारने वाली माँ, 
लाड दिखाने वाली बहन
प्यार लुटाने वाली पत्नी
और ख़याल रखने वाली बेटी या बहु

लेकिन नहीं हो सकती तो बस
खुल कर आज़ाद ख़यालों से
ज़िन्दगी जी लेने वाली आम लड़की
थोपी हुई सोच की दल-दल से निकल कर
खुली हवा में सांस लेने वाली स्त्री
लिंगानुपात की ही तरह
इसे भी महिला दिवस का नाम देकर 
एक दिन में समेट दिया गया है
जहाँ हम उसी रोबोटिक माइंड सेट की तरह
उस दिन खुश हो जाते हैं
रटे-रटाये ज़ुबान से कहते हैं
'हैप्पी वीमेन'स डे'

(रेणु मिश्रा)

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

माँ तुम्हारा जाना...


माँ तुम्हारा जाना
ज्यों नर्म बचपन का खो जाना
सहसा नए कोपल से
कोमल हृदय का
जड़ सा कठोर हो जाना

माँ तुम्हारा जाना 
दुख की तपती दोपहरी मे
या भादों-सी आँखों की बदरी मे
ज्यों सर के ऊपर से,
ममता का छप्पर उठ जाना

माँ तुम्हारा जाना 
खोलनी हो कोई गाँठ मन की
या बाँटना हो कोई दर्द जीवन का
मन की गति से पहुँचे
उन संदेसों का
बैरंग पाती हो जाना  

माँ तुम्हारा जाना
मन मे गहरे फैले रिक्तता का
अति---रिक्त हो जाना!!