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बुधवार, 8 अप्रैल 2015

|| भूख का कटोरा ||















आज कल चिता की आंच पर
पकते हैं कितने भूखे किसान
जो बोते हैं तड़पती भूख के बीज को
धरती के उमसते आंवें में
चढ़ाते हैं धधकते सूरज को जल
करते हैं इंद्र से प्रार्थना
कि बारिश की नर्म बूंदों से
खिल जाये सुनहरी गेंहू की बालियां

मगर उन्हें नहीं पता
कैसे मनाये समय के कुचक्र को
जो भरने नही देता
उनके अनाजों की कोठली
उड़ा देता है सर से
गिरवी पड़ा आस का छत्तर
छोड़ जाता है नादान भूखे हाथों में
कुलबुलाता खाली दूध का कटोरा
और चूल्हे की सोई आंच के पास
औंधी पड़ी हुई देकची

अब तो परमात्मा भी नहीं आते
देकची में पड़े एक दाने से
भूखों का पेट भरने!

पर धरती का पूत भूखा रहके भी
नहीं देख पता अपने आस पास
आँखों में लिलोरती भूख
तंग आकर समय के खेले से
खुद ही लगा लेता है फाँसी
या चढ़ा लेता है खुद को
चिता के धधकते चूल्हे पर

भूख मिटाने की चाह में
मिटा लेता है खुद को
पर चिता की भूख है कि
कभी मिटती ही नहीं!!

अब भूख के कटोरे में दर्द भी है! 

2 टिप्‍पणियां:

  1. किसान की वेदना को ठीक से पकड़ कर अपनी संवेदना के साथ मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति दी है इस कविता में . इस वक्त लिखा जाना चाहिए किसानो पर

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    1. गिरीश पंकज की आपने कविता को पढ़ा और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी दी। बहुत शुक्रिया आपका। और इस विषय पर अवश्य लिखा जाना चाहिए क्योंकि आज भी इतने उपायों के बावजूद किसान तो मर ही रहे हैं भूख से, कर्ज से, दर्द से !!

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