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गुरुवार, 14 मई 2015

|| नितांत अकेली ||

दोस्तों, मुझे यह बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि...अभी हाल ही में जानी मानी पत्रिका "कादम्बिनी" के मई-2015 अंक में मेरी कविता " नितांत अकेली" का प्रकाशन हुआ। पढ़ कर अपनी राय अवश्य बताएं...

















|| नितान्त अकेली ||

पहले जब तुझे जानती नहीं थी
सुनती थी तेरी हर एक बात
तेरे इशारों पर चला करती थी
जो कहना मानती थी तेरा
तो खुश रहने जैसा लगता था
ओ मेरी रूह,
कितना दबाव था तेरा मुझ पर

लेकिन एक दिन
मैं हो गयी विद्रोही
लोग मनमन्नी कहने लगे
तुझे जानने की कोशिश में
पहचान गयी खुद को
आदेशों के सांकलों में बाँध के
कोशिश भी की तूने रखने की
मगर मैंने एक ना सुनी
सारी रिवाज़ें रवायतें तोड़ भाग निकली
दुखता था दिल
कांपता था शरीर
दफ़्न होती जाती थी धड़कनें
मगर मैं भागती रही
नापती रही साहस के पहाड़ों को
तैरती रही दरिया के रौ के विरुद्ध
और छिपाती रही खुद को
बस अपने लिए खोज के निकाले गए
समय के घने वीरान जंगल में

मैं जान रही थी कि
तू खोज रही होगी मुझको
लेकिन मैं जानती हूँ ना
कि मैं कहाँ पाना चाहती थी तुझको
अब ना तेरे सुख का कोई गीत
या विचारों की प्रतिध्वनि
मुझ तक पहुँचती है
और ना तेरे विश्वास की कोई कड़ी
या नियम की कोई ज़ंजीर
मुझे गहरे तक जकड़ती है
तुझे खुश रखने की आकांक्षा भी
अब कहाँ बची है मुझमें?
अब मैं भगोड़ेपन के सुकून में जी रही हूँ
अलमस्त, बेलाग, नितांत अकेली!!

(रेणु मिश्रा)

6 टिप्‍पणियां:

  1. अलमस्त , बेलाग ,,,भगोड़ेपन का सुकून ...क्या बात है ! बेहतरीन रचना ...बधाई !

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  2. Marvellous writing. Very very insightful indeed. It shows how deeply have you observed yourself and had dialogue with unknown. It also made me think then what is that thing which stands out alone other than our soul? I do not have answer as yet. Great ...keep it up :)

    Ashish Garg

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    1. आशीष जी...शब्द नहीं मेरे पास कुछ कहने को। बस खुश हूँ कि आपको अच्छी लगी...बहुत शुक्रिया :)

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  3. बधाई .. अध्भुत चित्रण अकेलेपन और यादों का !!

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    1. धन्यवाद सुजीत जी आपके अमूल्य प्रतिक्रिया के लिए।

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