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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

तुम ही कहो...ऐसा होता है क्या...!!

अब आप सभी दोस्त मेरी कविताओं का लुत्फ़ इस तरीके से उठा सकते हैं।

नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिये और सुनिए मेरी बिलकुल नयी कविता...."तुम ही कहो...ऐसा होता है क्या...!!

यह कविता मेरे दिल के बहुत करीब है। ज़िन्दगी ऐसी ही होती है दोस्तों...इसका ना कोई ठौर है ना कोई ठिकाना। बस कभी इस बस्ती कभी उस शहर। इसको किसी की परवाह नहीं होती...पर दिल बेचारा क्या करे...वो तो बीती यादों के सहारे ही अपने को पुराने गलियों-घरों-दरीचों में तलाशने में लगा रहता है...अब उसे कौन समझाए कि ज़िन्दगी बेवफा है...वो किसी का इंतज़ार नहीं करती...वो तो बस बहती जाती है अपनी रवानी में और पीछे छोडती जाती है यादों का काफिला और दिल बेचारा..
बस इतना ही पूछ पाता है....

घर का पता बदलने से
यादों का पता
बदल जाता है क्या
तुम ही कहो...
ऐसा होता है क्या

तो लीजिये सुनिए मेरी कविता...

http://soundcloud.com/meethi-boliyan/my-poetry-tum-hi-kaho-aisa

मंगलवार, 27 मई 2014

मैं, आज की सीता कहलाऊंगी

जानी-मानी पत्रिका 'बिंदिया' मे मेरी कविता का प्रकाशन, मेरे लिए सच मे बहुत सुंदर अनुभव रहा...जिसे मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहूंगी...

ओ !! मेरी इच्छाओं के माया-मृग
तेरे मोह मे पड़ गया मेरा दृग,

तुम सोचोगे, मैं विचलित होकर
कर दूँगी प्राण को देह विलग॥
तो गलत सोच रहे हो जन्तु
कुछ ऐसा ना हो पाएगा,
सभी किन्तु-परंतु को दे विराम
नव-इतिहास रचाया जाएगा॥ 
मन धीर धरो’, ऐसा कह कर
सजल नयनों को ना बहलाऊंगी
तुझे पाने की इच्छा कर प्रचंड
मन को ये विश्वास दिलाऊंगी...

लक्ष्मण-रेखा उल्लंघन का लांछन
अब मुझसे ना होगा सहन,  
ढोंगी साधु के झूठे श्राप-पाप का  
छूत मुझसे ना होगा वहन॥  
चाहे भटकूँ मैं जंगल-जंगल
या फिर नदिया, ताल, समंदर,
तुझे ढूंढ लाऊँ सब मथ कर
हो चौदह-भुवन, या अवनि-अंबर
तो मेरी इच्छाओं के माया-मृग
तेरी मृगया पर, मैं स्वयं ही जाऊँगी
इस बार तुझे ढूँढने को वन-वन
अपने राम को ना भटकाऊँगी ।

अब इतनी भोली नादान नहीं
कि अपना भला ना समझ पाऊँ
किसी आढ़े-टेढ़े श्राप के भय से
व्यभिचारी की लंका मे फंस जाऊँ
अब कोमल तिनके की ओट मे बैठ   
नहीं विरह-वेदना मुझे सहन,
ना सामाजिक प्रतिष्ठा की वेदी पर
अग्नि-परीक्षा मे होना है दहन।  
ओ!! मेरी इच्छाओं के माया मृग
तुझे साधने, मैं स्वयं राम बन जाऊँगी
सीता-समाहित का विचार त्याग,
मैं, आज की सीता कहलाऊँगी॥   

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

अपने अनकहे जज़्बात !!















किसी दोस्त के अनकहे जज़्बातों को बयां करने की कोशिश मे...
मेरी नयी कविता
अर्से बाद तुम्हारी ग़ज़ल पढ़ी अखबार में
कोई नासूर सा दर्द उभर आया ख्याल में
मन सहसा ही अकुलाने लगा
कोई अनकहा लम्हा याद आने लगा
कोई बाहर मन के देहरी से
ख्वामख्वाह किसी को बुलाने लगा


 याद आने लगे वो सुनहरे दिन
वो तेरे मेरे सपनों से सजी चमकीली रातें 
जहाँ तेरे हौसलों की उड़ान पर
मेरी ख्वाहिशों की पतंगे
कर आती थी ऊँचे आसमा से बातें
हाँ वहीं कहीं मेरे सपने
आकाँक्षाओं के पार
ऊँचे अम्बर पर बसते थे
और तेरे सपने, मेरे नयनों के सागर में
डूब के पार उतरते थे।

तेरा मूक समर्पण, मेरी इच्छाओं को
शायद मैं कभी ना समझ पाई
मेरे राह के कांटे चुनने वाले
हमराह पथिक से ना मिल पायी
जीवन को नए कलेवर में पा
मैं खुद को उसमे भुलाने लगी
तेरे नेह-मेह की अबूझ पहेली को
बिन सुलझाये आगे जाने लगी।

दिन कटते गए रातें पटती गयी
मैं अपनी छोटी सी दुनिया में सिमटती गयी
ना तुम याद रहे, ना मौसम, ना बातें
आकांक्षाओं के इरेज़र से यादें मिटती रहीं
पर आज ग़ज़ल पढ़ी तो लगने लगा
कैसे नावाकिफ़ रह गयी तुम्हारे जज्बात से
जो मेरे हाथ लगी होती
तुम्हारे मन की डायरी
तो ना रूबरू होते हम ऐसे हालात से !!
...........................................................(रेनू मिश्रा )

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

उफ़्फ़ !! तू और तेरा इश्क़

 
उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यों कहूँ, कि…
तेरे इक ज़िक्र से मैं
सुबह की तरह उजली हो जाती हूँ 
जाने क्यूँ उड़ती हुई बदली हो जाती हूँ 
कभी सोच के तेरी बातों को 
यूँही खुद में ही हँस लेती हूँ 
कोई आखों से दिल को ना पढ़ ले 
तो नयन भिगो धो लेती हूँ। 

उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यूँ कहूँ, कि 
तेरी फिक्र से मेरा मन 
तूफानों मे फंसी कश्ती हो जाता है 
कोई लुटा-पिटा-सा बस्ती हो जाता है 
कोई जान ना ले व्याकुलता को 
बेमतलब ढोंग रचाता है 
नयनों को तेरा सपन-खिलौना दे 
यूँ खुद को ये बहलाता है । 

उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यूँ कहूँ, कि 
तेरे इश्क़ के इतर से 
मन खुशबू खुशबू हो चुका है 
तन चन्दन-सा खिल चुका है 
तेरे यादों की खुशबू को मैं 
अपने रूह तक बसा बैठी हूँ 
तुझे पाने की ख़्वाहिश मे 
खुद को कब से भुला बैठी हूँ । 

(प्रस्तुत कविता-मेरे साझा काव्य-संग्रह "विरहगीतिका" से )

काश!! वो आ जाए....


चाक चौबारे धुल के बैठी
शायद कहीं से वो आ जाए...
नयन-झरोखा  खोल के बैठी
मन के अंतस में खो जाए!!

ख्वाहिश नहीं मेरी बिंदिया निहारे
बैठा रहे मेरे पहलू में.…
बस चाहती हूँ, जब दिल ये पुकारे
सौ जतन करके भी आ जाए!!

ख़ुद से नहीं, तुमसे प्यार किया है
ये कैसे तुम्हें ऐतबार हो....
एक बार तुम मेरी रूह में झाको
शायद तुम्हें अपना दीदार हो जाए!!

मिलने को तुमसे कितने जतन किए 
जैसे प्यार ना हो के, कोई व्यापार हो 
दूरियों की कमज़ोरी मिटा के देखो 
मेरा नन्हा सपना साकार हो जाए !!

बहुत तड़पाया मन को तुमने 

हाथों पे रखे अंगारे सा...
कुछ ऐसे मिलो तुम आके साथी 
जलते मन की प्यास बुझ जाए !!

(प्रस्तुत कविता-मेरे साझा काव्य-संग्रह 
"विरहगीतिका" से )