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शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

उफ़्फ़ !! तू और तेरा इश्क़

 
उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यों कहूँ, कि…
तेरे इक ज़िक्र से मैं
सुबह की तरह उजली हो जाती हूँ 
जाने क्यूँ उड़ती हुई बदली हो जाती हूँ 
कभी सोच के तेरी बातों को 
यूँही खुद में ही हँस लेती हूँ 
कोई आखों से दिल को ना पढ़ ले 
तो नयन भिगो धो लेती हूँ। 

उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यूँ कहूँ, कि 
तेरी फिक्र से मेरा मन 
तूफानों मे फंसी कश्ती हो जाता है 
कोई लुटा-पिटा-सा बस्ती हो जाता है 
कोई जान ना ले व्याकुलता को 
बेमतलब ढोंग रचाता है 
नयनों को तेरा सपन-खिलौना दे 
यूँ खुद को ये बहलाता है । 

उफ़्फ़ !!
क्या कहूँ, क्यूँ कहूँ, कि 
तेरे इश्क़ के इतर से 
मन खुशबू खुशबू हो चुका है 
तन चन्दन-सा खिल चुका है 
तेरे यादों की खुशबू को मैं 
अपने रूह तक बसा बैठी हूँ 
तुझे पाने की ख़्वाहिश मे 
खुद को कब से भुला बैठी हूँ । 

(प्रस्तुत कविता-मेरे साझा काव्य-संग्रह "विरहगीतिका" से )

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उम्दा ख्याल के धागे में सही शब्दों को पिरोकर गढ़ी गयी रचना। सुंदर !

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया सौरभ जी...बस ऐसे ही हौसला बढ़ाते रहिए :)

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  2. उत्तर
    1. मुकेश जी...आपको उत्तम कहने का पूरा हक़ है। आप तो गवाह रहे हैं उस घड़ी का, जब मैंने ये कविता सबके सामने पढ़ी थी...आपकी वाह-वाही याद है मुझे :)

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  3. उत्तर
    1. शुक्रिया कमलेश...'वीरहगीतिका' मे भी यह कविता प्रकाशित है...शायद आपने पढ़ी हो :)

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