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रविवार, 30 अक्तूबर 2011

मन के जीते...जीत


बीते दिनों, जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी जिनसे मन बहुत आहत हुआ...मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या परिस्तिथियाँ या फिर मजबूरियाँ, इंसान कि ज़िन्दगी से इतनी बड़ी हो जाती हैं कि वो मौत को भी गले लगाने से नहीं चूकता

पर मुझे लगता है कि ज़िन्दगी को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहिए इससे अनमोल तो कुछ भी नहीं चाहे कैसा भी समय हो, चाहे कैसी भी परिस्तिथी हो हमें कमज़ोर नहीं पड़ना चाहिए किसी को हमराज़ बना लेना चाहिए जिससे हम अपने सारे ग़म बाँट सकें क्यूंकि खुशियाँ बांटने के लिए बहुत मिल जायेंगे पर ग़म को समझने वाले, आपको आप जैसे हो वैसे स्वीकार करने वाले बिरले ही होते हैं

और इसके लिए हमे खुलना पड़ेगा,अपने-पराये को समझना पड़ेगा, अपने को बंद बोतल के जिन्न जैसा दिखने से अलग रखना होगा...जो कि सबकी इच्छाएं पूरी करने के लिए बाध्य होता है, दिखावे से दूर निकलना होगा क्यूंकि ज़िन्दगी जितनी सरल होती है, उसे जीना उतना ही आसान होता है ज़िन्दगी में अच्छा और बुरा दोनों समय आता है, जब हम अछे समय को पूरी शिद्दत से जीते हैं तो फिर बुरे को क्यूँ नहीं...समय का एक फंडा बहुत अच्छा है, ये रुकता कभी नहीं..तो जैसे अच्छा बीत जाता है वैसे बुरा भी बीत जायेगा...अगर ये बात मन में हमेशा रहे तो ज़िन्दगी के कठनाइयों को जीना आसान हो जाता है...ये मेरा अपना अनुभव है

एक बात और कहना चाहुँगी कि हमे अपने मन को किसी ऐसे के लिए खोलना पड़ेगा, जो हमे अच्छे से समझे- जाने, बिना कोई जजमेंट दिए...हम जैसे हैं हमे वैसे ही स्वीकार कर ले , हमारी बातों को सुने... कि अपनी बातों को थोपे और ऐसा दोस्त, हमसफ़र, या ऐसा व्यक्ति जिससे आप जानते हो , होना बहुत ज़रूरी है क्यूंकि मन में लगी कुछ गांठे ही मन का गला घोटने के लिए काफी होती हैं

सो, बस एक छोटा सा ख्याल मन में आता है कि -
"ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं कि चाहे जैसे मोड़ लें,

पर इतनी भी मुश्किल नहीं कि उसका साथ छोड़ दें...

कश्ती चाहे टूटी ही सही, चाहे समंदर में तूफ़ान हो,

दिल का जज्बा बुलंद है तो कश्ती साहिल को ढूंढ ले "