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मंगलवार, 27 मई 2014

मैं, आज की सीता कहलाऊंगी

जानी-मानी पत्रिका 'बिंदिया' मे मेरी कविता का प्रकाशन, मेरे लिए सच मे बहुत सुंदर अनुभव रहा...जिसे मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहूंगी...

ओ !! मेरी इच्छाओं के माया-मृग
तेरे मोह मे पड़ गया मेरा दृग,

तुम सोचोगे, मैं विचलित होकर
कर दूँगी प्राण को देह विलग॥
तो गलत सोच रहे हो जन्तु
कुछ ऐसा ना हो पाएगा,
सभी किन्तु-परंतु को दे विराम
नव-इतिहास रचाया जाएगा॥ 
मन धीर धरो’, ऐसा कह कर
सजल नयनों को ना बहलाऊंगी
तुझे पाने की इच्छा कर प्रचंड
मन को ये विश्वास दिलाऊंगी...

लक्ष्मण-रेखा उल्लंघन का लांछन
अब मुझसे ना होगा सहन,  
ढोंगी साधु के झूठे श्राप-पाप का  
छूत मुझसे ना होगा वहन॥  
चाहे भटकूँ मैं जंगल-जंगल
या फिर नदिया, ताल, समंदर,
तुझे ढूंढ लाऊँ सब मथ कर
हो चौदह-भुवन, या अवनि-अंबर
तो मेरी इच्छाओं के माया-मृग
तेरी मृगया पर, मैं स्वयं ही जाऊँगी
इस बार तुझे ढूँढने को वन-वन
अपने राम को ना भटकाऊँगी ।

अब इतनी भोली नादान नहीं
कि अपना भला ना समझ पाऊँ
किसी आढ़े-टेढ़े श्राप के भय से
व्यभिचारी की लंका मे फंस जाऊँ
अब कोमल तिनके की ओट मे बैठ   
नहीं विरह-वेदना मुझे सहन,
ना सामाजिक प्रतिष्ठा की वेदी पर
अग्नि-परीक्षा मे होना है दहन।  
ओ!! मेरी इच्छाओं के माया मृग
तुझे साधने, मैं स्वयं राम बन जाऊँगी
सीता-समाहित का विचार त्याग,
मैं, आज की सीता कहलाऊँगी॥