साहित्य में नव-चेतना की पैरवी करती पत्रिका 'गाथांतर' मे अपनी कविता का प्रकाशित होना,
गौरवान्वित महसूस होने वाला पल है।
माँ की याद मे लिखी गयी कविता, उन्ही की स्मृतियों को समर्पित....
माँ, तुम्हारे जाने के बाद
रोज़ निहारती हूँ अपना चेहरा
टटोलती हूँ
अपनी हंसी में तुम्हारा अक्स
लेकिन इतने दिन हुए
कभी आईने को
मुस्कुराते नहीं देखा
जोड़ों की मालिश का तेल
तुम्हारे बिस्तर के सिरहाने
फुर्सत से आराम फ़रमा रहे हैं
इस जाड़े, जोड़ों के दर्द से
सभी साड़ियों को
तह करते समय जाना
तुमने उसमे समेट रखे थे
कितनी ही नरम मीठी गंध वाली
मुस्कान की रोटियाँ
और हमारी रंग-बिरंगी आवाज़ों वाली
लाड भरी किलकारियाँ
पिछली सर्दी में बनवाया
तुम्हारी धुंधली आँखों का चश्मा
इस ठंडी में अंधा हो गया
मेरी कविताओं के पन्नों पर बैठे बैठे
सोचता है,
आज कल किसी का भरोसा नहीं
ज़िन्दगी कितनी छोटी हो गयी है!!