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रविवार, 24 मई 2020

आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!


आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!
कुछ देर हम साथ बैठें,
एक दूजे का दिल बहलायें
याद करके बीते हुए लम्हे
अपने आज को मीठा कर जाएं
आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!

दोस्तों से करें खूब सारी बातें
भूले-बिसरे रूठे-रोते यारों को मनाएं
अब कहाँ है 'वक़्त' का रोना
रात भर जागें, सुबह चादर तान सो जाएं
आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!

साथ में बच्चों के खेलें
कभी खुद भी बच्चे बन जाएं
कभी चेस में दे दें शह-मात
कभी लुका-छिपी में सब को ढूंढ लाएं
आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!

कभी करें खुद से ही बातें
दिल में कोई नया गीत गुनगुनाएं
और कभी करके बन्द पलकें
अपनी रूह से ही रूबरू हो जाएं 
आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!

ज़िन्दगी चलती है सीधी रेखा में
ये सिर्फ आज है! ना है कल-परसों या कल
हमें सिर्फ 'आज' को है जीना
क्यों ना ये बात हम समझ जाएं
आओ ना ! घर में ही रह जाएं !!
✍️#RenuMishra

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

|| गुमशुदा ||




मैं गुमशुदा रात के किनारे बैठे
जब ख्यालों के क्रोशिये में
अँधेरों को बुन रही थी
चुन-चुन के टांक रही थी
सबसे चमकीले दुःख
उसी पल तुमने प्रेम की तीली से
चाँद रौशन कर दिया
दुःख मद्धम पड़ गये
और मैं उजालों से भर गयी
मेरी गुमशुदगी में 
तुम मुझे तलाश चुके थे !!


✍रेणु मिश्रा ©

मंगलवार, 8 मार्च 2016

कविता - || दो दुनिया ||


वो मेरी पढ़ी-लिखी सहेलियाँ
पढ़ती हैं किताबें,
रचती हैं कहानियां
और मुक्त कंठ से गाती हैं
औरतों की आज़ादी के गीत
सुनाती हैं कवितायेँ
करती हैं ऊँचे स्वर में
स्त्री मुक्ति का आह्वान
मांगती हैं समानता का अधिकार
जैसा कि उद्धृत है
पढ़े-लिखों के संविधान में

और ये मेरी अनपढ़ सखियाँ
हर बार उलझ जाती हैं
कन्नी-मांझे, पतंगों की उड़ान में
बिन्हसारे, नीम-अँधेरे
मांजती हैं बर्तन,
बिना शोर के बुहारती हैं आँगन
अपने अँधेरों को पीछे दुबकाके
देती हैं उजालों को अर्घ्य
निभाती हैं सिखाई हुई परम्पराएँ
मनाती हैं संक्रांति का त्यौहार
खिड़की से देखती हैं उड़ती हुई पतंगें,
मुस्कुराती हैं
सोचती हैं,
वो भी उड़ायेंगी अगले साल!!
(रेणु मिश्रा)

गुरुवार, 3 मार्च 2016

|| कविता ~~ पिता के लिए ||

|| पिता ||

पिता!!
मेरे जीवन का प्रथम पुरुष
मेरा अहम् मेरा ग़ुरूर
जिस की ऊँगली थमा कर
परिचय तो माँ ने कराया था
लेकिन उसने कभी जताया नहीं,
एक पिता होने का दंभ
मेरी हथेलियों को मजबूती से थामे
जब वो मुझे दिखा रहा होता
और सीखा रहा होता
दुनिया की बेमानी गला-काट दौड़ में
ईमानदारी से अपनी राह चुनना,
सपने बुनना और आगे बढ़ना
बेबाकी से अपनी बात कहना,
बेपरवाह रहना और हिम्मती बनना,
मैं देख रही होती उसकी आँखों में
एक गर्व से मुस्कुराती लड़की का
इठलाता हुआ चेहरा

|| विरासत ||

एक रात
जब वक़्त की सुइयां
थी दुःख से आहत
और मन था भय से आक्रांत
रात बीत रही थी धीमे-धीमे
और आँखें थी खंडहर-सी वीरान
मैं बेचैनी से खोज रही थी
दुःख की भूल-भुलैया से निकल पाने का रास्ता
उस वक़्त सहसा खुद में महसूस किया
अपने शांत, साहसी पिता का होना
जो ज़िन्दगी के कठिन दौर में
हमेशा बंधाते ढाढ़स
और निराशा से भरे अँधेरी रातों में
खोज लाते उम्मीद के जुगनू
जो हमारी आँखों को
सपनों की चादर से ढांप कर
जागा करते थे रात-भर
और ढूंढ लेते हमारी हँसी के लिए
रोज़ एक नयी निखरी सुबह
जो ठहाकों के रंगीन गिलाफ में
छुपाये रहते धागों-सा महीन दर्द
जो हँसते नील-गगन के विस्तार-सा
और रोते सागर की तरह गहरे-गहरे
कि वो बखूबी जानते थे
कि दुःख कभी पराया नहीं होता
वो होता है अनुवांशिक
उतरता जाता है पीढ़ी-दर-पीढ़ी
इसलिए वो दुःख की परिभाषा से
हमें अनजान रखते हुए सीखा गए थे
दुखों से जूझने का सलीका
ओ पिता
तुम जो छोड़ गए हो मुझ में
अपनी सभी निशानियाँ
उन्हें मैं सहेज कर रहूँगी अपने भीतर
तुम्हारी विरासत की तरह!!
【रेणु मिश्रा】
अनपरा, सोनभद्र

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

माँ...तुम्हारे जाने के बाद
















साहित्य में नव-चेतना की पैरवी करती पत्रिका 'गाथांतर' मे अपनी कविता का प्रकाशित होना, 
गौरवान्वित महसूस होने वाला पल है।
माँ की याद मे लिखी गयी कविता, उन्ही की स्मृतियों को समर्पित....

माँ, तुम्हारे जाने के बाद
रोज़ निहारती हूँ अपना चेहरा
टटोलती हूँ 
अपनी हंसी में तुम्हारा अक्स
लेकिन इतने दिन हुए
कभी आईने को
मुस्कुराते नहीं देखा


बिवाई मिटाने का मलहम
जोड़ों की मालिश का तेल
तुम्हारे बिस्तर के सिरहाने
फुर्सत से आराम फ़रमा रहे हैं
इस जाड़ेजोड़ों के दर्द से 
जो तुम्हारा वास्ता नही पड़ा

तुम्हारी ग्रे नीली फीके रंग की
सभी साड़ियों को
तह करते समय जाना
तुमने उसमे समेट रखे थे 
कितनी ही नरम मीठी गंध वाली
मुस्कान की रोटियाँ
और हमारी रंग-बिरंगी आवाज़ों वाली
लाड भरी किलकारियाँ


पिछली सर्दी में बनवाया 
तुम्हारी धुंधली आँखों का चश्मा
इस ठंडी में अंधा हो गया
मेरी कविताओं के पन्नों पर बैठे बैठे
सोचता है,
आज कल किसी का भरोसा नहीं
ज़िन्दगी कितनी छोटी हो गयी है!!


गुरुवार, 30 जुलाई 2015

|| इंसाफ की बात ||














जब हजारों की संख्या में
न्याय को तरसते लोग
बरसों से अपनों की ठंडी लाश के साथ सोते हुए
आज गर्माहट महसूस करने लगे हैं

आज जब उनकी बरसों से जागती हुई
पथरा गयी आँखों को
चैन की नींद सोने का मौका मिलेगा

अपने मारे गए बच्चों के बारे मे सोचते हुए
जिन माँ-बाप के गले से
एक निवाला तक नीचे नहीं उतर रहा था
अचानक से उनके पेट की क्षुधा दुगुनी हो जाएगी

जिन कानों ने कितना समय गुज़रे
गोलियों, बम-धमाकों और मौत के चीख-पुकार के अलावा
कोई भी दुख का गीत नहीं सुना

जो लोग हंसने और रोने,
स्तब्ध रह जाने या खुल के मुस्कुराने के जद्दोजहद मे
आस का दामन पकड़े कई-कई मौत रोज़ मर रहे हैं
जिनका बस एक खबर मिलने भर से
सारा ताप, संताप, क्रोध, आघात का कौतूहल
पल भर मे शांत हो जाएगा  

क्या उन आत्माओं की शांति से बढ़ के
उस इंसान की, इस दुनिया मे मौजूदगी ज़रूरी है
जिसकी रूह, इंसानियत का गला घोंटते समय
बिलकुल भी नहीं कांपी

अगर यही है इंसानियत
तो ‘थू’ है ऐसी इंसानियत पर और उन दलीलों पर
जिनके आधार पर
कलम यह कविता लिखवा गयी !!

(रेणु मिश्रा )


बुधवार, 3 जून 2015

|| अरुणा शानबॉग की याद में...||

















दोस्तों, जानी-मानी समसामयिक पत्रिका "आउटलुक हिन्दी" के जून 2015 के अंक में मेरी कविता "अरुणा शानबॉग की याद में..." प्रकाशित हुई है। इस कविता को मैं अरुणा के जैसी जघन्य त्रासदी झेल चुकी दुनिया की हर स्त्री को समर्पित करती हूँ। उनका असहनीय दर्द, मेरा और हर उस इंसान का दर्द है जो सही मायनों मे दर्द, पीड़ा, वेदना के मर्म को समझता है। 
"अरुणा शानबॉग को विनम्र श्रद्धांजलि"!!

कविता 


अँधेरा
घना, काला, स्याह अँधेरा
जो कभी वीरान नही होता
ना होता है सुनसान

वहां चीखती है अनेक
कलपती साँसों की रुदालियाँ
जो चित्कारती पुकारती
छुप जाना चाहती हैं
उन दरिंदों की स्याह परछाइयों से
जिन्होंने बयालीस साल पहले
उसकी आत्मा का खून कर
उसे उजालों से कर दिया था बेदखल
जो उसे जंजीरों से जकड़, 
फेंक आये थे 
पीड़ा से भरे अंतहीन काली खोह में

उसकी आत्मा जूझती रही 
पल-पल उस काले अतीत से
जिसने उसके उजले भविष्य का 
कर दिया था बलात्कार

मन के अँधेरे स्लेट पर से 
वो हर संभव, 
हर तरीके से मिटाती रही
'
बेचारी अरुणा' होने का दाग़

और फिर उस दिन
तिल-तिल सुलगते देह के अँगारे में
धड़कनों के बिगुल ने ऐसा साँस फूंका
कि वो, एक तिनका उजाले का
अपनी अंधी आँखों से गटक
अँधेरे के जकड़बंदियों से 
हमेशा के लिए आज़ाद हो गयी


अब
करती है प्रार्थना
हे ईश्वर!
कभी भूल कर भी तुम 
"
अरुणा शानबॉग" ना बनाना!!