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मंगलवार, 8 मार्च 2016

कविता - || दो दुनिया ||


वो मेरी पढ़ी-लिखी सहेलियाँ
पढ़ती हैं किताबें,
रचती हैं कहानियां
और मुक्त कंठ से गाती हैं
औरतों की आज़ादी के गीत
सुनाती हैं कवितायेँ
करती हैं ऊँचे स्वर में
स्त्री मुक्ति का आह्वान
मांगती हैं समानता का अधिकार
जैसा कि उद्धृत है
पढ़े-लिखों के संविधान में

और ये मेरी अनपढ़ सखियाँ
हर बार उलझ जाती हैं
कन्नी-मांझे, पतंगों की उड़ान में
बिन्हसारे, नीम-अँधेरे
मांजती हैं बर्तन,
बिना शोर के बुहारती हैं आँगन
अपने अँधेरों को पीछे दुबकाके
देती हैं उजालों को अर्घ्य
निभाती हैं सिखाई हुई परम्पराएँ
मनाती हैं संक्रांति का त्यौहार
खिड़की से देखती हैं उड़ती हुई पतंगें,
मुस्कुराती हैं
सोचती हैं,
वो भी उड़ायेंगी अगले साल!!
(रेणु मिश्रा)

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