Copyright :-

© Renu Mishra, All Rights Reserved

गुरुवार, 3 मार्च 2016

|| कविता ~~ पिता के लिए ||

|| पिता ||

पिता!!
मेरे जीवन का प्रथम पुरुष
मेरा अहम् मेरा ग़ुरूर
जिस की ऊँगली थमा कर
परिचय तो माँ ने कराया था
लेकिन उसने कभी जताया नहीं,
एक पिता होने का दंभ
मेरी हथेलियों को मजबूती से थामे
जब वो मुझे दिखा रहा होता
और सीखा रहा होता
दुनिया की बेमानी गला-काट दौड़ में
ईमानदारी से अपनी राह चुनना,
सपने बुनना और आगे बढ़ना
बेबाकी से अपनी बात कहना,
बेपरवाह रहना और हिम्मती बनना,
मैं देख रही होती उसकी आँखों में
एक गर्व से मुस्कुराती लड़की का
इठलाता हुआ चेहरा

|| विरासत ||

एक रात
जब वक़्त की सुइयां
थी दुःख से आहत
और मन था भय से आक्रांत
रात बीत रही थी धीमे-धीमे
और आँखें थी खंडहर-सी वीरान
मैं बेचैनी से खोज रही थी
दुःख की भूल-भुलैया से निकल पाने का रास्ता
उस वक़्त सहसा खुद में महसूस किया
अपने शांत, साहसी पिता का होना
जो ज़िन्दगी के कठिन दौर में
हमेशा बंधाते ढाढ़स
और निराशा से भरे अँधेरी रातों में
खोज लाते उम्मीद के जुगनू
जो हमारी आँखों को
सपनों की चादर से ढांप कर
जागा करते थे रात-भर
और ढूंढ लेते हमारी हँसी के लिए
रोज़ एक नयी निखरी सुबह
जो ठहाकों के रंगीन गिलाफ में
छुपाये रहते धागों-सा महीन दर्द
जो हँसते नील-गगन के विस्तार-सा
और रोते सागर की तरह गहरे-गहरे
कि वो बखूबी जानते थे
कि दुःख कभी पराया नहीं होता
वो होता है अनुवांशिक
उतरता जाता है पीढ़ी-दर-पीढ़ी
इसलिए वो दुःख की परिभाषा से
हमें अनजान रखते हुए सीखा गए थे
दुखों से जूझने का सलीका
ओ पिता
तुम जो छोड़ गए हो मुझ में
अपनी सभी निशानियाँ
उन्हें मैं सहेज कर रहूँगी अपने भीतर
तुम्हारी विरासत की तरह!!
【रेणु मिश्रा】
अनपरा, सोनभद्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें