दोस्तों, आज काफी दिनों के बाद ज़िंदगी की उलझनों से अपने लिए फुर्सत निकाल पायी और आपके लिए अपने साझा काव्य संग्रह 'धूप के रंग' से पसंदीदा कविता 'ज़िंदगी की किताब' चुन लाई। इस कविता मे किस तरह धूप के रंग की तरह रिश्तों के रंग बदलते बदलते हैं, ढलते और फिर खिल उठते हैं, उसकी ज़ाहिर करने की कोशिश की गयी है।
मेरी ज़िंदगी की किताब जब पूरी होगी
वो तेरे ज़िक्र के बिना अधूरी होगी
पढ़ना चाहूंगी मैं वो पन्ना
जहां मिला था तू मुझे तस्वीर मे
अजनबी की तरह
और घुल गया था मेरे जेहन-ओ-तन मे
रंग-ओ-रोशनी की तरह।
फिर तू मिला मुझसे
सर्दी की गुनगुनी धूप की तरह
मन हो गया सतरंगी
ओस की चमकती बूंद की तरह।
बात आगे बढ़ी मन बसंती हुआ
सपने खिलने लगे
ज्यों सरसों की क्यारियाँ...
सुनहरे ख़यालों से मन जुडने लगा
सपनों के रस्ते मन मुड़ने लगा
हम मिलने लगे,
हर पहर मे, हर सहर मे
कभी चंपई सुबह की तरह
कभी सिंदूरी शाम की तरह।
जब बात बढ़ी तो खयालात बदले
ज़िंदगी के सवालात मे उलझ कर
हालात बदले
और...
तू मुझसे रूठ गया
जेठ की दोपहरी की तरह...
उमंगों के सभी पत्ते गिर के
झुलस गए थे कोरों पर
पर उम्मीद की एक बेपरवाह कली
लाल टेसू की मानिंद
अब भी खिली थी मन के पोरों पर
कि...
तू लौट आएगा एक दिन
मेरे बुलाने पर
और मिल जाएगा मुझसे
बरखा के बाद वाली
उजली धूप की तरह...
कहते हैं...
विश्वास का सूरज ही,
उम्मीद की कली खिलाता है
जीवन से दुश्वारियों का
कोहरा छांट ले जाता है
और...
इक रोज़ टेसू की कली फूल हुई
दुआ मेरे दिल की कुबूल हुई
हम तुम मिल गए फिर
सर्दी की धूप की तरह
मन सतरंगी हो गया
ओस की चमकती बूंद की तरह!