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बुधवार, 5 जनवरी 2011

"मन सीधे चलो"...















मन
मेरा है, पागल ज़रा, मेरी तो ज़रा भी ना सुने
,
मैं कहूँ,"मन सीधे चलो", वो ऊँची-ऊँची कुलांचे भरे।

कभी रहता अनमना सा, कभी हज़ार गुफ्गुओं से भरा,
कभी सूखे फूलों सा गिरा, कभी सोंधी खुशबुओं से तरा
कभी तो करके बंद पलकें,वो खुद को टटोलता रहे,
कभी टूटे तारे कि चाह में,वो आसमा तकता रहे।

कभी तो इक पग ना हिले मन,तो कभी ये मन मीलों चले,
कभी लगे समंदर सा खारा, कभी चाय में चीनी सा घुले।
मन ये क्यूँ है बावरा सा, बस अपनी कहे - अपनी करे ,
मैं कहूँ," मन सीधे चलो",वो ऊँची- ऊँची कुलांचे भरे


4 टिप्‍पणियां:

  1. मन मेरा है, पागल ज़रा, मेरी तो ज़रा भी ना सुने,
    मैं कहूँ,"मन सीधे चलो"......
    क्या ब्बात है !!
    .
    .
    अनियंत्रित उड़ान है मन की भी !!
    ....................................सुन्दर कविता.
    (मुझे लगता है, मैंने आपको कही देखा है..... बनारस में या कही और पता नहीं.
    मगर कही देखा है. )

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  2. Shukriya Arun ji,
    Duniya badi chhoti hai..ho sakta hai, aapne kahin dekha ho!!

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