किसी दोस्त के अनकहे जज़्बातों को बयां करने की कोशिश मे...
मेरी नयी कविता
अर्से बाद तुम्हारी ग़ज़ल पढ़ी अखबार में
कोई नासूर सा दर्द उभर आया ख्याल में
मन सहसा ही अकुलाने लगा
कोई अनकहा लम्हा याद आने लगा
कोई बाहर मन के देहरी से
ख्वामख्वाह किसी को बुलाने लगा
याद आने लगे वो सुनहरे दिन
वो तेरे मेरे सपनों से सजी चमकीली रातें
जहाँ तेरे हौसलों की उड़ान पर
मेरी ख्वाहिशों की पतंगे
कर आती थी ऊँचे आसमा से बातें
हाँ वहीं कहीं मेरे सपने
आकाँक्षाओं के पार
ऊँचे अम्बर पर बसते थे
और तेरे सपने, मेरे नयनों के सागर में
डूब के पार उतरते थे।
तेरा मूक समर्पण, मेरी इच्छाओं को
शायद मैं कभी ना समझ पाई
मेरे राह के कांटे चुनने वाले
हमराह पथिक से ना मिल पायी
जीवन को नए कलेवर में पा
मैं खुद को उसमे भुलाने लगी
तेरे नेह-मेह की अबूझ पहेली को
बिन सुलझाये आगे जाने लगी।
शायद मैं कभी ना समझ पाई
मेरे राह के कांटे चुनने वाले
हमराह पथिक से ना मिल पायी
जीवन को नए कलेवर में पा
मैं खुद को उसमे भुलाने लगी
तेरे नेह-मेह की अबूझ पहेली को
बिन सुलझाये आगे जाने लगी।
दिन कटते गए रातें पटती गयी
मैं अपनी छोटी सी दुनिया में सिमटती गयी
ना तुम याद रहे, ना मौसम, ना बातें
आकांक्षाओं के इरेज़र से यादें मिटती रहीं
पर आज ग़ज़ल पढ़ी तो लगने लगा
कैसे नावाकिफ़ रह गयी तुम्हारे जज्बात से
जो मेरे हाथ लगी होती
तुम्हारे मन की डायरी
तो ना रूबरू होते हम ऐसे हालात से !!
...........................................................(रेनू मिश्रा )
मैं अपनी छोटी सी दुनिया में सिमटती गयी
ना तुम याद रहे, ना मौसम, ना बातें
आकांक्षाओं के इरेज़र से यादें मिटती रहीं
पर आज ग़ज़ल पढ़ी तो लगने लगा
कैसे नावाकिफ़ रह गयी तुम्हारे जज्बात से
जो मेरे हाथ लगी होती
तुम्हारे मन की डायरी
तो ना रूबरू होते हम ऐसे हालात से !!
...........................................................(रेनू मिश्रा )