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बुधवार, 5 जनवरी 2011

"मन सीधे चलो"...















मन
मेरा है, पागल ज़रा, मेरी तो ज़रा भी ना सुने
,
मैं कहूँ,"मन सीधे चलो", वो ऊँची-ऊँची कुलांचे भरे।

कभी रहता अनमना सा, कभी हज़ार गुफ्गुओं से भरा,
कभी सूखे फूलों सा गिरा, कभी सोंधी खुशबुओं से तरा
कभी तो करके बंद पलकें,वो खुद को टटोलता रहे,
कभी टूटे तारे कि चाह में,वो आसमा तकता रहे।

कभी तो इक पग ना हिले मन,तो कभी ये मन मीलों चले,
कभी लगे समंदर सा खारा, कभी चाय में चीनी सा घुले।
मन ये क्यूँ है बावरा सा, बस अपनी कहे - अपनी करे ,
मैं कहूँ," मन सीधे चलो",वो ऊँची- ऊँची कुलांचे भरे