जब हजारों की संख्या
में
न्याय को तरसते लोग
बरसों से अपनों की
ठंडी लाश के साथ सोते हुए
आज गर्माहट महसूस
करने लगे हैं
आज जब उनकी बरसों से
जागती हुई
पथरा गयी आँखों को
चैन की नींद सोने का
मौका मिलेगा
अपने मारे गए बच्चों
के बारे मे सोचते हुए
जिन माँ-बाप के गले
से
एक निवाला तक नीचे
नहीं उतर रहा था
अचानक से उनके पेट की
क्षुधा दुगुनी हो जाएगी
जिन कानों ने कितना
समय गुज़रे
गोलियों, बम-धमाकों
और मौत के चीख-पुकार के अलावा
कोई भी दुख का गीत नहीं सुना
जो लोग हंसने और
रोने,
स्तब्ध रह जाने या
खुल के मुस्कुराने के जद्दोजहद मे
आस का दामन पकड़े
कई-कई मौत रोज़ मर रहे हैं
जिनका बस एक खबर
मिलने भर से
सारा ताप, संताप,
क्रोध, आघात का कौतूहल
पल भर मे शांत हो
जाएगा
क्या उन आत्माओं की
शांति से बढ़ के
उस इंसान की, इस
दुनिया मे मौजूदगी ज़रूरी है
जिसकी रूह, इंसानियत
का गला घोंटते समय
बिलकुल भी नहीं
कांपी
अगर यही है इंसानियत
तो ‘थू’ है ऐसी
इंसानियत पर और उन दलीलों पर
जिनके आधार पर
कलम यह कविता लिखवा
गयी !!
(रेणु मिश्रा )