आज तुम्हारे कमरे मे गयी थी
चुपके से, ठहरे पानी सी
और हवा की तरह ले आई
अपने संग हर वो बात
जो ज़िंदगी के लिए ज़रूरी थी
हाँ
ले आई बिस्तर के सिरहाने से
कॉफी के, दो खाली मग
कड़वाहटों को तलहटी मे छोड़
जिनके संग गुज़ारा था
प्यार भरी चुसकियों का मीठा वक़्त
अरे!! वक़्त से याद आया
ले आई फ़ोटोफ्रेम से
मुस्की वाला, वक़्त का क़तरा
जो लम्हों की सूई से ठोकर खा
वहीं था पड़ा, पतझड़ सा बिखरा
यादों के चिलमन से जो
धूप थी छन के आई
तो उससे लग रहा था
वो कितना उजला निखरा
लो!! उजले से याद आया
ले आई उजले से दिन और
चमकीली रातों वाला कलेण्डर
जिनमे बातें थी उन मौसमों की
जहाँ दिन खिलते थे चंपई से
और रातें महकती थी जैसे लैवेंडर।
अब!! ख़ुशबू की बात कैसे भूलूँ
ले आई तुम्हारी अलमारी से
झाँकता हुआ अपना हरा दुपट्टा
जो तुम्हारी ख़ुशबू से था तरा
और तुम्हारे प्यार को सीने से लगाए
बरसों से था वहीं पड़ा
गुस्ताख़ी माफ़ हो, तुम्हें बताया नहीं
कि मैं कब आई मैं कब गयी
पर शायद तुमने मेरे लिए ही इन्हे
इतने दिनों से सहेज रखा था
ले आई
तुम्हारे कमरे का वो मेरा सामान
जो मेरी ज़िंदगी के लिए ज़रूरी था...!
(प्रस्तुत कविता "धूप के रंग" काव्य संग्रह में जुलाई'14 को प्रकाशित)